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महर्षि दधीचि विश्व के प्रथम शल्य चिकित्सक के रूप में जाने जाते है

महर्षि दधीचि शिव के अनन्य भक्त थे । शिव कृपा से अंग प्रत्यारोपण शल्य क्रिया का ज्ञान पूरे विश्व में केवल महर्षि दधीचि को ही था। महर्षि विशिष्ट पात्र व्यक्ति को ही इस विद्या का ज्ञान देना चाहते थे, लेकिन इन्द्र ब्रह्म विद्या प्राप्त करने के परम इच्छुक थे।

दधीचि की दृष्टि में इन्द्र इस विद्या के पात्र नहीं थे। इसलिए उन्होंने इन्द्र को इस विद्या को देने से मना कर दिया। दधीचि के इंकार करने पर इन्द्र ने उन्हें किसी अन्य को भी यह विद्या देने को मना कर दिया और कहा कि- "यदि आपने ऐसा किया तो मैं आपका सिर धड़ से अलग कर दूँगा"।

महर्षि ने कहा कि- "यदि उन्हें कोई योग्य व्यक्ति मिलेगा तो वे अवश्य ही ब्रह्म विद्या उसे प्रदान करेंगे।" कुछ समय बाद इन्द्रलोक से ही अश्विनीकुमार महर्षि दधीचि के पास ब्रह्म विद्या लेने पहुँचे।दधीचि को अश्विनीकुमार ब्रह्म विद्या पाने के योग्य लगे। उन्होंने अश्विनीकुमारों को इन्द्र द्वारा कही गई बातें बताईं। तब अश्विनीकुमारों ने महर्षि दधीचि के अश्व का सिर लगाकर ब्रह्म विद्या प्राप्त कर ली। इन्द्र को जब यह जानकारी मिली तो वह पृथ्वी लोक में आये और अपनी घोषणा के अनुसार महर्षि दधीचि का सिर धड़ से अलग कर दिया।

अश्विनीकुमारों ने महर्षि के असली सिर को फिर से लगा दिया। इन्द्र ने अश्विनीकुमारों को इन्द्रलोक से निकाल दिया

यही कारण था कि इन्द्र महर्षि दधीचि के पास उनकी अस्थियों का दान माँगने के लिए आना नहीं चाहते थे। वे इस कार्य के लिए बड़ा ही संकोच महसूस कर रहे थे।

सम्माननिय दधीचि वंशजों जय दधीचि ……..


महर्षि दधीचि विश्व के पहले ट्रस्टी(विश्वास पात्र) थै, जिन पर देवासुर संग्राम में देवताओं की जीत के बाद उन अस्त्र शस्त्रों को इंद्र ने उनकी निगरानी में रखने का निश्चय किया था ! दधीचि के प्रभाव से राक्षसों का आतंक उनके परिसर से बारह कोस दूर ही रहता था , समयोपरांत राक्षसों ने अनेको प्रकार से आश्रम के आसपास के ऋषि मुनियो को तंग करना शुरू कर दिया
महर्षि दधीचि ने उन अस्त्रों को भगवान शिव की अनुमति लेकर अपने तेज से अस्त्रों के अन्दर की पूरी विद्या कोशल और ताक़त को पिघला कर अपने उदर में पहुँचा दिया और उनका शरीर वज्र का हो गया
समयोपरांत जब वत्रासुर संग्राम में ब्रम्हाजी के कहने पर दानवीर महर्षि दधीचि ने इंद्र को वापस अपने वज्र से बनी अस्थियाँ दान में देकर विश्व के पहले ट्रस्टी होने का गौरव प्राप्त किया और विश्व के कल्याण हेतु उन अस्थियों से वत्रासुर का वध हुआ और पूरे संसार को संकट से उबारा ! एसे दानवीर महर्षि दधीचि की संतान होने पर पूरे दाधीच समाज क़ो गर्व है

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महर्षि दधीचि के पुत्र ऋषि पिपलाद ने अपने जन्म के समय हीअपने माता पिता को खो दिया था । इन्द्र के द्वारा आग्रह करने पर महर्षि दधीचि ने {अपने वज्र के शरीर की हड्डियों से बने अस्त्रों से वत्रासुर राक्षस को मारकर संसार को असुरी शक्तियों के संताप से बचाने के लिए अपने} जीवित शरीर का दान कर दिया था और उनकी पत्नी गभस्तिनि उसी दिन अपने पति के साथ सती हो गयी थी और सती होने पूर्व पेट में पल रहे शिशु को कोख़ से निकाल कर पास के पीपल की कोटरी में छोड़ दिया था पीपल के गोंदे(फलो) को खाकर शिशु बड़ा होने लगा फिर नारद जी ने उनका नामकरण पिपलाद कर दिया बाल्यकाल में ही पिपलाद ने तपस्या कर ब्रमहा जी से वरदान प्राप्त किया और उन पर शनि महादशा की वजह से जो वज्र का पहाड़ टूटा था उसका बदला शनि को भष्म करके लिया ! बाद में देवताओं के मनाने पर शनि को जीवित भी छोड़ दिया था ! यहाँ यह कहानी संक्षिप्त में इसलिए बताई गई है कि उनके साहस व धीरज से [ शनि पर ग़ुस्सा होने से बदले की भावना व मनाने पर जीवित छोड़ देना आदि] उनके खेल प्रतिभा का व कोषलता का उदाहरण मिलता है !इसी लिए एसे वीर धीर के वंशज होने के नाते पिपलाद अकादमी के नाम का चयन किया है !
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